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7 अगस्त 1942 को मौलाना अबुल कलाम आज़ाद की अध्यक्षता में मुंबई के गोवालिया टैंक मैदान में कांग्रेस का अधिवेशन शुरू हुआ. गोकुलदास तेजपाल हाउस में सन 1885 को कांग्रेस की स्थापना हुई थी, ये जगह गोवालिया टैंक मैदान से महज़ 250 मीटर की दूरी पर थी. अधिवेशन 7 अगस्त को शुरू हुआ और अगले दिन तक जारी रहा. कांग्रेस के नेताओं ने 8 अगस्त को ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ को शुरू करने का फ़ैसला किया और गांधी जी ने ‘करो या मरो’ का नारा दिया.

कांग्रेस ने ये आन्दोलन तब छेड़ा जब द्वितीय विश्व युद्ध चल रहा था. अंग्रेज़ सरकार युद्ध में उलझी हुई थी लेकिन उसने भारत के अन्दर किसी भी आन्दोलन को कुचलने का मन बनाया हुआ था. ब्रिटिश सरकार को इस तरह के आन्दोलन का पहले से इसका आभास हो चुका था, उसने इस आन्दोलन को कुचलने का सारा बंदोबस्त कर लिया था.

‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ का एलान 8 अगस्त हुआ और 9 अगस्त तक सभी कांग्रेसी नेताओं को पुलिस ने हिरासत में ले लिया. महात्मा गांधी को पुणे के आग़ा खां पैलेस में रखा गया जबकि बाक़ी नेताओं को अहमदनगर फ़ोर्ट में रखा गया. सभी बड़े नेताओं को जेल चले जाने से आन्दोलन के लिए ज़रूरी नेतृत्व की कमी दिख रही थी. ब्रिटिश सरकार में संतुष्टि थी और ऐसा लगा कि आन्दोलन शुरू होने से पहले ही ख़त्म हो गया.

इसी समय अरुणा आसफ़ अली आगे आयीं. अरुणा आसफ़ अली के पति आसफ़ अली कांग्रेस कार्य समिति के सदस्य थे और आन्दोलन के शुरू होते ही उन्हें भी अंग्रेज़ों ने जेल भेज दिया था. अरुणा आसफ़ अली ने अपने कन्धों पर आन्दोलन की ज़िम्मेदारी ले ली. ब्रिटिश अधिकारी और पुलिस ने जो सोचा भी नहीं था वो हुआ और अरुणा आसफ़ अली ने नेतृत्व सम्भाला और गोवलिया टैंक मैदान में कांग्रेस के ध्वज को फहरा दिया. इसके साथ ही ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ की शुरुआत हो गई. अरुणा आसफ़ अली को गिरफ़्तार करने की कोशिश भी नाकाम हो गई और वो अंडर-ग्राउंड हो गईं.

इस घटना की चर्चा हर गली और गाँव में हुई और जगह-जगह प्रोटेस्ट शुरू हो गए. अंग्रेज़ों ने प्रोटेस्ट कुचलने की हर संभव कोशिश की लेकिन देश के हर कोने में कहीं बड़े तो कहीं छोटे विरोध प्रदर्शन होते ही रहे. अरुणा के नाम पर वारंट जारी हुआ, उनकी संपत्ति को ज़ब्त करके बेच दिया गया लेकिन वो अंडर-ग्राउंड आन्दोलन चलाती रहीं.

दूसरी ओर वाइसराय कौंसिल, आल इंडिया मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा, रियासतें, सिविल सर्विसेज़ और पुलिस ने इस आन्दोलन का पुरज़ोर विरोध किया. भारत के बड़े व्यापारी भी इस आन्दोलन के ख़िलाफ़ ही दिखे वहीं देश के युवाओं का एक तबक़ा सुभाष चन्द्र बोस के पक्ष में खड़ा था जो एक्सिस पॉवर के साथ मिलकर युद्ध के ज़रिए आज़ादी हासिल करने की कोशिश में थे. बाहरी देशों से भी इस आन्दोलन को बहुत सपोर्ट नहीं मिला लेकिन अमरीकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन रूज़वेल्ट ने इस आन्दोलन का समर्थन किया. उन्होंने ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल से बात की और कहा कि भारतीय नेताओं की कुछ माँगें मानी जानी चाहिएँ.

इस आन्दोलन में लोगों ने विरोध प्रदर्शन अलग-अलग तरह से किए. लखनऊ में लोगों ने काली पतंगे उड़ाईं और इस तरह से पेंच लड़ाए कि पतंग सरकारी दफ़्तरों में गिरे. पुलिस भी इन पतंगबाजों को पकड़ नहीं पाती थी क्यूँकि ये बहुत दूर से पतंग की डोर थामे होते थे और शाम में कभी-कभी ऐसा भी होता था कि आसमान में काली पतंगों का नज़ारा हो जाता. लखनऊ की ही तरह पटना, लाहौर और दिल्ली में भी यूनीक प्रदर्शन हुए.

दूसरी ओर अरुणा आसफ़ अली भी कुछ न कुछ ऐसा करती रहती थीं कि अंग्रेज़ परेशान रहें. हालाँकि कुछ समय बाद वो बीमार हो गईं और दिल्ली के करोल बाग़ के डॉ जोशी अस्पताल में छुपकर अपना इलाज करा रही थीं. गांधी जी ने उन्हें हाथ से लिखी एक चिट्ठी भेजी जिसमें उन्होंने कहा कि आन्दोलन का लक्ष्य हासिल हो गया है और अब वो सरेंडर कर दें. हालाँकि उन्होंने सरेंडर नहीं किया और वो तभी बाहर आयीं जब 1946 में उनके नाम से जारी हुआ वारंट वापिस ले लिया गया.

उस समय ऐसा कहा गया कि ये आन्दोलन नाकामयाब हो गया. इसकी नाकामयाबी का बड़ा कारण ये था कि सभी कांग्रेसी नेताओं को तुरंत ही हिरासत में ले लिया गया और आन्दोलन के लिए कोऑर्डिनेटेड अभियान नहीं चलाया जा सका. ब्रिटिश सरकार ने भारत को आज़ादी देने से इनकार कर दिया लेकिन उसको इस बात का आभास हो गया कि अब भारत पर वो बहुत दिन राज नहीं कर सकेगा. ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ उस समय नाकामयाब रहा लेकिन उसके असर ने ही अंग्रेज़ों को भारत छोड़ने पर मजबूर कर दिया.

ये ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ का ही असर था कि 1946 के शुरू में भारतीय सेना के अन्दर कई विद्रोह खड़े हो गए. बम्बई में ये बग़ावत रॉयल इंडियन नेवी तक पहुँच गई. फ़रवरी, 1946 के बाद कलकत्ता, मद्रास और कराची में भी सेना के अन्दर बाग़ी स्वर सुने गए. हालाँकि इन सभी विद्रोह को दबा दिया गया. दूसरी ओर ब्रिटेन में अब लेबर पार्टी सत्ता में आ गई और वो भारतीय लोगों की भावना को समझ गई. 1946 के शुरू में ही भारत में चुनाव भी हुए.

11 प्रान्तों में से 8 प्रान्तों में कांग्रेस ने शानदार जीत हासिल की. कांग्रेस की इस जीत ने साबित कर दिया कि ब्रिटिश सरकार बिना कांग्रेस समर्थन के देश में सरकार नहीं चला सकती. कांग्रेसी नेताओं ने अपनी समझ-बूझ से अंग्रेज़ों को देश छोड़ने पर मजबूर कर दिया. इस चुनाव में कांग्रेस ने हिन्दू बाहुल्य सीटों में से 90% से अधिक जीतीं जबकि मुस्लिम लीग ने मुस्लिम बाहुल्य सीटों में से 87% से अधिक जीत लीं. इसके बाद कांग्रेस और मुस्लिम लीग में देश की आज़ादी के बाद आगे सरकार कैसे चले इसको लेकर बातचीत शुरू हो गई.

हालाँकि कुछ ही समय में दोनों पार्टियों में टकराव दिखने लगा और मुस्लिम लीग ने अलग देश का राग अलापना जारी रखा. मुस्लिम लीग के नेता मुहम्मद अली जिन्ना ने 16 अगस्त 1946 को डायरेक्ट एक्शन डे का एलान कर दिया. देश के कई हिस्सों में हिन्दू-मुस्लिम दंगे होने लगे. कांग्रेसी नेताओं ने इन दंगों को रोकने के लिए हर संभव प्रयास किया. सितम्बर 1946 को अविभाजित भारत में अंतरिम सरकार का गठन किया गया जिसमें जवाहर लाल नेहरु को प्रधानमंत्री चुना गया.

इस सरकार में कांग्रेस के अलावा मुस्लिम लीग के नेताओं को भी मंत्री पद दिया गया और बंटवारा न हो इसको लेकर कांग्रेस, ख़ुदाई ख़िदमतगार और अन्य सेक्युलर दल प्रयास करते रहे और मुस्लिम लीग को समझाने की कोशिश करते रहे. ब्रिटिश सरकार ने 1947 की शुरुआत में भारत के नेताओं को बता दिया कि अब वो सत्ता पूरी तरह से ट्रान्सफर कर देगा. ब्रिटिश सरकार की जल्दबाज़ी और मुस्लिम लीग के नेताओं की हठधर्मिता ने आख़िर देश को बँटवारे की आग में झोंक दिया. बँटवारे की चोट के बाद भी भारत की आज़ादी ने नई उम्मीदें जगाईं.

युवा भारतीय के सपनों का भारत अब हासिल हो गया था। भारतीय संसाधनों पर अब देश के लोगों का अधिकार था। 26 जनवरी, 1950 को भारत गणराज्य बन गया। भारत के संविधान ने देश के हर नागरिक को क़ानून के समक्ष समान माना। संविधान ने शोषित तबक़ों को आगे बढ़ाने के लिए गंभीर प्रयास किए।

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