Hazrat Umar ne shakhs ko tilavat karne se roka “उक़बा बिन आमिर रज़ि० अ० ने हुज़ूरे अकरम स०अ० से नक़्ल किया है कि कलामुल्लाह ( कुरआन शरीफ) बुलंद आवाज़ से पढ़ने वाला ऐलानिया सदक़ा करने वाला जैसा है जबकि आहिस्ता पढ़ने वाला छुप के सदक़ा करने वाला जैसा है” [ बुखारी ] इस हदीस के बारे मे उलमा ए इकराम का कहना है कि सदक़ा कभी ऐलानिया यानी खुलकर देना अफ़ज़ल होता है तो कभी छुपा कर। अगर दूसरों को सदक़े की तरगीब देना मक़सद हो या कोई और मसलिहत हो तो सदक़ा खुले आम देना अफ़ज़ल है। लेकिन अगर खुल कर सदक़ा देने से रियाकारी का शुबहा होता हो या इससे दूसरों की तज़लील ( ज़लील करना) होती हो तो सदक़ा छुप कर देना ही अफ़ज़ल है।
दरअसल इस्लाम मे अमल का दारोमदार नीयत पर है ।जैसी नीयत वैसा ही अमल। इसी तरह कलाम पाक भी उस वक्त बुलंद आवाज़ मे पढ़ना अफ़ज़ल है जब दूसरों को कलाम पाक पढ़ने की तरगीब देना मक़सद हो। दूसरा अगर सुनने वाले को सवाब भी होता हो तो बुलंद आवाज़ मे पढ़ना अफ़ज़ल है। इसी तरह अगर बुलंद आवाज़ पढ़ने से किसी ( बीमार वगैरह) को तकलीफ होती हो या फिर रियाकारी का शुबहा दिल मे पैदा हो ,उस वक़्त हलकी आवाज़ मे पढ़ना ही अफ़जल है।
हज़रत जाबिर रज़ि० अ० हुज़ूरे अक़दस स०अ० से नक्ल करते है कि पुकार कर इस तरह न पढ़ो कि एक आवाज़ दूसरी आवाज़ मे खलत ( मिल जाना) हो जाए। हज़रत उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ ने मस्जिदे नबवी मे एक शख्स को आवाज़ से तिलावत करने से रोक दिया था। उस शख्स को हुज्जत करने पर उन्होंने फरमाया कि अल्लाह की रज़ा के वास्ते पढ़ता है तो आहिस्ता पढ़ और लोगों की खातिर पढ़ता है तो तेरा पढ़ना बेकार है। इसी तरह हुज़ूरे अक़दस स० अ० से आवाज़ के साथ पढ़ने का इरशाद भी नक्ल किया गया है। शरहे अहया मे दोनों तरह की रिवायात और आसार ज़िक्र किये गये हैं. ~ Hazrat Umar ne shakhs ko tilavat karne se roka