हज़रत उमरु बिन आस रज़ि अ० ने अपने आखिरी वक्त मे फरमाया कि मेरी ज़िन्दगी के तीन दौर गुज़रे हैं। एक वह दौर था जब रसूल अल्लाह स० अ० से बुगज़ रखने वाला मुझ से ज़्यादा कोई शख्स न था। और जबकि मेरी सबसे बड़ी तमन्ना यह थी कि किसी तरह मेरा आप स० अ० पर क़ाबू चल जाए तो मै आप स० अ० को मा-र डालूँ। यह मेरी ज़िन्दगी का सबसे बदतर दौर था। अगर खुदा न खास्ता मै इस हाल मे मर जाता तो यक़ीनी तौर पर दोज़खी होती।
इसके बाद जब अल्लाह तआला ने मेरे दिल मे इस्लाम का हक़ होना डाल दिया तो मै आप स० अ० के पास आया और अर्ज़ किया : अपना हाथ मुबारक आगे बढाइये ताकि मै आप से बैत कर सकूँ। आप स अ० ने अपने दस्ते मुबारक बढ़ा दिया. मैने अपना हाथ पीछे खींच लिया। आप स अ० ने पूछा ,उमरु यह क्या ? मैने अर्ज़ किया मै कुछ शर्त लगाना चाहता हूँ ।आप स० अ० ने फरमाया क्या शर्त लगाना चाहते हो.? मैने कहा ,यह कि मेरे सब गुनाह माफ हो जाएं।आप स० अ० ने इरशाद फरमाया :उमरु क्या तुम्हें ख़बर नही कि इस्लाम तो कुफ्र की ज़िन्दगी के गुनाहों का तमाम क़िस्सा ही पाक कर देता है।और हिजरत भी पहले तमाम गुनाह माफ कर देती है। और हज भी पिछले सब गुनाह माफ कर देता है। यह वह दौर था जब आप स० अ० से ज़यादा अज़ीज़, बुज़ुर्गों बरतर मेरी नज़र मे कोई और न था। आप स० अ० की अज़मत की वजह से मेरे यह ताब न थी कि कभी आप स० अ० को नज़र भर के देख लेता। काश मै उस हाल मे मर जाता तो उम्मीद है कि जन्नती होता। फ़िर उसके बाद हम कुछ चीज़ों के ज़िम्मेदार और मुतवल्ली बने। और नहीं जानते ,हमारा हाल उन चीज़ों मे क्या रहा।( यह तीसरा दौर था)
फिर उसके बाद फरमाया कि देखो जब मेरी वफ़ात हो जाए तो मेरे जनाज़े के पास कोई वावेला और शौर शगब करने वाली औरत न हो ।न ही आग मेरे जनाज़े के साथ हो। जब मुझे दफ़न कर चुको तो मेरी कब्र पर अच्छी तरह मिट्टी डालना। और मेरी कब्र के पास इतनी देर ठहरना कि जितनी देर ऊंट ज़िबह करके उसका गोश्त तक़सीम किया जाता है ।ताकि तुम्हारी वजह से मेरा दिल लगा रहे और मुझे मालूम हो जाए कि मै अपने रब के भेजे हूए फरिशतो के सवालों के जवाब क्या देता हूँ। (हवाला : मुस्लिम शरीफ़)