भारतीय विज्ञापन जगत को नई भाषा और भावनात्मक अभिव्यक्ति देने वाले दिग्गज क्रिएटिव डायरेक्टर पीयूष पांडे का गुरुवार सुबह 70 वर्ष की उम्र में निधन हो गया। उनकी बहन तृप्ति पांडे ने इंस्टाग्राम पोस्ट के ज़रिए इस दुखद समाचार की पुष्टि की।
उन्होंने लिखा, “हमारे प्रिय भाई, पीयूष पांडे – आज सुबह इस दुनिया को अलविदा कह गए। वह सिर्फ़ भारतीय विज्ञापन जगत के सितारे नहीं थे, बल्कि उन लाखों दिलों में चमकते रहेंगे जिन्हें उनकी संवेदनशील लाइनों ने छू लिया था।”
पीयूष पांडे पिछले एक महीने से मुंबई के एचएन रिलायंस फ़ाउंडेशन अस्पताल में भर्ती थे और सांस से जुड़ी दिक्कतों के चलते उनका इलाज चल रहा था। उनकी बहन और मशहूर अभिनेत्री इला अरुण ने बताया कि गुरुवार सुबह 5:50 बजे उन्होंने अंतिम सांस ली।
करीब चार दशक तक ओगिल्वी इंडिया से जुड़े रहे पीयूष पांडे ने भारतीय विज्ञापन उद्योग को भावनाओं, भाषा और आम जीवन के दृश्य के माध्यम से एक विशिष्ट पहचान दी। फ़ेविकोल का “दम लगा के हइसा”, कैडबरी का “कुछ ख़ास है ज़िंदगी में”, सेंटर फ़्रेश, लूना, तथा “मिले सुर मेरा तुम्हारा” जैसे अभियानों ने उन्हें विज्ञापन जगत की उन ऊंचाइयों पर पहुंचाया जहां उनका नाम एक ब्रांड की तरह पहचाना जाने लगा।
राजस्थान के जयपुर में जन्मे और हिंदी साहित्यिक माहौल में पले-बढ़े पांडे अक्सर कहते थे कि उनका जन्म “एक क्रिएटिव फ़ैक्ट्री” में हुआ था। उन्होंने सेंट स्टीफ़ेंस कॉलेज, दिल्ली से पढ़ाई की और बाद में टी टेस्टिंग का काम करने के बाद विज्ञापन जगत में कदम रखा। शुरुआत में उनकी आवाज़ बहन इला अरुण के रेडियो जिंगल्स में गूंजती थी।
उनके विज्ञापन सिर्फ़ उत्पाद नहीं बेचते थे, बल्कि दिलों में जगह बनाते थे। फ़ेविकोल के बस वाले विज्ञापन से लेकर एसबीआई लाइफ़ के भावनात्मक कैंपेन तक, उन्होंने भारतीय जनमानस को गहराई से समझा और उसे विज्ञापन कला में ढाला।
साल 2014 के लोकसभा चुनाव अभियान के दौरान उन्होंने ‘अबकी बार, मोदी सरकार’ जैसे नारे भी गढ़े, जिन्होंने राजनीतिक संचार में भी उनकी प्रतिभा को साबित किया।
पीयूष पांडे के जाने से भारतीय विज्ञापन जगत ने न सिर्फ़ एक रचनात्मक मस्तिष्क खोया है, बल्कि वह आवाज़ भी खो दी जो आम आदमी की भावनाओं को एक लाइन में बयान कर देती थी।