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Ottoman Empire Pan Islamism Arab NationalismIllustration of Palestinian Christian home in Jerusalem, ca 1850. By W. H. Bartlett

Ottoman Empire Pan Islamism Arab Nationalism ~ 19वीं शताब्दी के मध्य तक ऑटोमन साम्राज्य में पड़ने वाले यूरोपीय क्षेत्र की आबादी में गहरा असंतोष था। लम्बे समय तक सेक्युलर मानी जाने वाली ऑटोमन सल्तनत पर ग़ैर-मुस्लिमों से भेदभाव के आरोप लगने लगे। 1839 की तंज़िमात रेफ़ोर्म के ज़रिए ऑटोमन सुल्तान मुहम्मद द्वितीय और उनके बाद अब्दुल मजीद ने नागरिकों को बराबरी का एहसास दिलाने की कोशिश की। हालाँकि तंज़िमात रेफ़ॉर्म्ज़ पर भी ठीक तरह से कभी अमल नहीं हुआ और असंतोष कहीं ग़ुस्से में बदलने लगा तो कहीं चुप होकर किनारे बैठ गया। 1821 में ग्रीस की आज़ादी के आंदोलन से जिस माहौल ने ज़ोर पकड़ा था उसका असर ये था कि ऑटोमन साम्राज्य का यूरोपीय हिस्सा अब उसके बहुत कंट्रोल में नहीं रह गया था। रूस ने तुर्की को “सिक मैन ऑफ़ यूरोप” कहना शुरू कर दिया था। बात तो यहाँ तक होने लगी कि अब इस ‘बीमार आदमी’ का ‘मर’ जाना ही ठीक है।

इसी तरह के माहौल के बीच 1876 में सुल्तान अब्दुल हमीद द्वितीय ने सत्ता सम्भाली। अब्दुल हमीद के सत्ता में आते ही तंज़िमात रेफ़ॉर्म्ज़ की जो भी साँसें थीं वो ख़त्म हो गयीं। नए सुल्तान ने मान लिया था कि तंज़िमात साम्राज्य में किसी तरह का कॉमन-आयडेंटिटी क्रीएशन नहीं कर सकी है और इसलिए इसका कोई और तरीक़ा ही निकालना होगा।

अब्दुल हमीद को ये बात भी समझ आ गयी कि रूस और हैब्सबर्ग जैसी ताक़तें ईसाई एकता के नाम पर उसके देश में फूट डालती हैं और कुछ भी करके वो इसका मुक़ाबला नहीं कर पाते। अब्दुल हमीद ने इसका तोड़ इस तरह निकाला कि जिस तरह रूस जैसे देश चर्च की सुरक्षा के नाम पर उनके देश में दख़ल देते हैं उसी तरह अगर किसी और देश में मुस्लिम पर हमला हो तो उनको भी दूसरे देश के मामले में बोलना चाहिए। अब्दुल हमीद को लगने लगा कि अगर वो मुस्लिम सवाल पर बोलते हैं तो उनके साम्राज्य की एक स्पेसिफ़िक कॉमन-आयडेंटिटी बन जाएगी, हालाँकि इसका सबसे बड़ा रिस्क मायनॉरिटी के और नाराज़ हो जाने का था।

इसी सोच के आसपास सुल्तान ने पैन-इसलामिज़्म की नीति अपनानी शुरू की। अब्दुल हमीद ने ये कहना शुरू किया की यूरोप के मुसलमानों को एकजुट होना चाहिए और उन्हें तय करना चाहिए कि उनके साथ ज़्यादती हो तो उनका नेता कौन हो। ऑटोमन सुल्तान के इस स्टैंड ने ऑस्ट्रीअ, रूस, फ़्रान्स और स्पेन को तो डराया ही, साथ ही ब्रिटेन को भी परेशान कर दिया। इन सभी देशों में बड़ी मुस्लिम आबादी रहती थी और लगभग सभी साम्राज्यों में मुस्लिम नागरिकों की स्थिति दूसरे दर्जे के नागरिकों जैसी ही थी। अब्दुल हमीद के इस स्टैंड पर जर्मनी उसके साथ खुलकर खड़ा दिखा। इसका प्रमुख कारण यही था कि जर्मनी की अपनी कोई मुस्लिम कॉलोनी तो थी ही नहीं।

जहाँ पैन इसलामिज़्म की बात ज़ोर-शोर से खड़ी हुई तो वहीं इसका विरोध भी ऑटोमन के अंदर और बाहर शुरू हो गया। 1908 में युवा तुर्क आंदोलन के बाद अब्दुल हमीद नाममात्र के सुल्तान रह गए तो अगले साल वो स्टैटस भी चला गया और उनकी जगह उनके भाई को बतौर कठपुतली सिंघासन पर बैठा दिया गया।

युवा तुर्क आंदोलन ने आयडेंटिटी को लेकर एक और क्राइसिस खड़ा कर दिया। ऑटोमन साम्राज्य में रहने वाले अरब चाहे वो मुस्लिम हों या ग़ैर-मुस्लिम तुर्की प्रभाव के बढ़ने से नाराज़ होने लगे और अरब एकजुटता का नारा ज़ोर पकड़ने लगा। तीन अरब छात्रों (दमिश्क के अहमद क़ादरी, नेबलूस के अवनी अब्दल हदी और बालबेक के रुस्तम हैदर) ने मिलकर अल-फ़तात (युवा अरब सॉसाययटी) की स्थापना की। 1911 में इन तीनों ने पेरिस में मीटिंग की और युवा तुर्क आंदोलन की तरह अपने मूवमेंट को अंडर-ग्राउंड ही रखने की बात कही। ऑटोमन में रहने वाले अरब मूल के लोगों तक ये बातें पहुँचने लगीं और युवा तुर्क आंदोलन के प्रति असंतोष खुलकर दिखने लगा। इसी बीच प्रथम विश्व युद्ध की शुरुआत हो गई।

युद्ध में रूस, फ़्रान्स, और ब्रिटिश साम्राज्य जहाँ एक तरफ़ थे वहीं जर्मनी, ऑस्ट्रीअ-हंगरी, और ऑटोमन दूसरी तरफ़। ऑटोमन साम्राज्य में चल आंतरिक मतभेदों का फ़ायदा उठाने के लिए ब्रिटेन के मिस्र में हाई कमिशनर हेनरी मैकमोहन ने मक्का के शरीफ़ हुसैन बिन अली से सम्पर्क साधा। दोनों में कई स्तर की वार्ता हुई (जुलाई 1915 से मार्च 1916 तक) और ये तय हुआ कि अगर हुसैन के लोग ऑटोमन साम्राज्य में अरब विद्रोह करते हैं तो जंग जीतने पर ब्रिटेन साम्राज्य का अरबी क्षेत्र उन्हें दे देगा और एक बड़े अरब स्टेट की स्थापना को मान्यता भी देगा। इसी समय ब्रिटेन में सरकार बदल गयी और नयी सरकार यूँ तो पहले की तरह ही लिबरल थी लेकिन इसका मत ऑटोमन साम्राज्य का पूरी तरह बँटवारा करने की ओर था। 1917 में ब्रिटेन की ज़ायनिस्ट नेताओं से बातचीत शुरू हुई। 2 नवम्बर 1917 को बालफ़ोर डेक्लरेशन हुआ जिसमें ये तय हुआ कि अगर ब्रिटेन युद्ध जीतता है तो वो फ़िलिस्तीनी हिस्सा ज़ायनिस्ट नेताओं को दे देगा। इसने मक्का के शरीफ़ को तगड़ा झटका तो दिया ही, साथ ही समूचे अरब जगत में गम्भीर चिंता पैदा की।

ज़ायनिस्ट नेताओं की ख़ुशी भी कुछ ही दिन की रही क्यूँकि 7 नवम्बर 1917 को रूस में बोल्शेविक क्रांति हो गयी और उसने एक ऐसी सीक्रेट ट्रीटी जनता के सामने रखी जिसकी उम्मीद न तो अरब नेताओं को थी न ही ज़ायनिस्ट नेताओं को। बोल्शेविक नेताओं ने रूस को युद्ध से अलग कर लिया और बताया कि फ़्रान्स और ब्रिटेन ने ऑटोमन के बँटवारे के लिए पहले से ही एक सीक्रेट अग्रीमेंट कर रखा है। 1916 में दोनों देशों ने तत्कालीन रूसी ज़ार और इटली के समर्थन से साइक-पीकों अग्रीमेंट (Sykes–Picot Agreement) किया हुआ था और जब जंग ख़त्म हुई तो इसी आधार पर फ़्रान्स और ब्रिटेन ने ऑटोमन का बँटवारा भी किया।

शरीफ़-मैकमोहन कम्यूनिकेशन, बालफ़ोर डेक्लरेशन और साइक पीको अग्रीमेंट ने इस क्षेत्र की आगे की राजनीति को तय किया। बालफ़ोर डेक्लरेशन से ‘फ़िलिस्तीन क्वेस्चन’ भी खड़ा हो गया जिसने आगे चलकर ‘अरब राष्ट्रवाद’ के नारे को और बुलंद किया और फ़िलिस्तीन का आज़ादी संघर्ष अरब जगत के लिए एकजुटता का सबसे बड़ा प्रतीक बना।

~ (Ottoman Empire Pan Islamism Arab Nationalism)
(ये इतिहास के रेफ़्रेन्स पर आधारित लेख है जिसे अरग़वान रब्बही ने लिखा है, अरग़वान ने यूनिवर्सिटी ऑफ़ लखनऊ ने पाश्चात्य इतिहास में MA में गोल्ड मेडल हासिल किया है)

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