अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान के बीच लगभग 2,600 किलोमीटर लंबी डूरंड रेखा को लेकर विवाद एक बार फिर चर्चा में है। हाल ही में अफ़ग़ान तालिबान सरकार के रक्षा मंत्री मुल्ला याक़ूब द्वारा दिए गए विवादास्पद बयान के बाद यह मुद्दा फिर सुर्खियों में आ गया है। सवाल उठ रहा है कि यह विवाद कब शुरू हुआ और क्यों आज भी इतनी संवेदनशीलता से जुड़ा है।
डूरंड रेखा की नींव 13 नवंबर 1893 को रखी गई थी, जब ब्रिटिश भारत के विदेश सचिव सर हेनरी मोर्टिमर डूरंड और अफ़ग़ान अमीर अब्दुर रहमान ख़ान के बीच एक समझौता हुआ। तब अमीर ने कहा था, “यह पहली बार है कि अफ़ग़ानिस्तान की स्पष्ट सीमा निर्धारित की गई है, जिससे भविष्य में ग़लतफ़हमी पैदा नहीं होगी।” पाकिस्तान के वरिष्ठ पत्रकार वक़ार मुस्तफ़ा के अनुसार, यह समझौता उस क्षेत्र से संबंधित था जो पहले ही अफ़ग़ान प्रभाव से बाहर हो चुका था और आज पाकिस्तान के ख़ैबर पख़्तूनख़्वाह व बलूचिस्तान के हिस्से में आता है।
इतिहासकार बताते हैं कि यह सीमा ‘ग्रेट गेम’ के दौर में खींची गई, जब ब्रिटेन और रूस मध्य एशिया में वर्चस्व की लड़ाई लड़ रहे थे। अफ़ग़ानिस्तान ब्रिटिश और रूसी संघर्ष का मोहरा बन गया। 1878 में ब्रिटेन की जीत के बाद अब्दुर रहमान ख़ान को अमीर बनाया गया और 1893 में डूरंड रेखा की संधि पर हस्ताक्षर हुए।
पाकिस्तान 1947 के बाद इस रेखा को अंतरराष्ट्रीय सीमा मानता है, लेकिन अफ़ग़ानिस्तान इसे आज तक स्वीकार नहीं करता। अफ़ग़ान पक्ष का तर्क है कि संधि दबाव में हुई थी और इससे पश्तून समुदाय दो देशों में विभाजित हो गया। साउथ एशियन यूनिवर्सिटी के एसोसिएट प्रोफ़ेसर धनंजय त्रिपाठी के मुताबिक, “सीमा दोनों ओर सांस्कृतिक, धार्मिक और सामाजिक रूप से जुड़े लोगों को अलग करती है, इसलिए यह अफ़ग़ान भावनाओं से गहराई से जुड़ा मुद्दा है।”
विश्लेषकों का कहना है कि अफ़ग़ानिस्तान में चाहे कोई भी शासन हो — चाहे वह राजशाही हो, गणतंत्र हो या तालिबान — डूरंड रेखा को मान्यता देना राजनीतिक और भावनात्मक रूप से मुश्किल है। वहीं पाकिस्तान इस सीमा को मान्यता देकर अलगाववाद और पश्तून राष्ट्रवाद के उभार को रोकना चाहता है।
हाल के दिनों में सीमावर्ती इलाक़ों में तालिबान और पाकिस्तानी सुरक्षा बलों के बीच झड़पें हुई हैं, जिनमें दोनों ओर से जानें गई हैं। इसके बाद दोहा में अस्थायी शांति पर सहमति बनी, लेकिन सीमा विवाद पर कोई बात नहीं हुई।
विशेषज्ञों का मानना है कि जब तक ऐतिहासिक शिकायतों और जातीय संवेदनाओं को ध्यान में रखते हुए संवाद नहीं होगा, तब तक डूरंड रेखा केवल सीमा नहीं, बल्कि संघर्ष की रेखा बनी रहेगी।