सुलतान नूर उद्दीन ज़ंगी और क़ब्रे मुबारक सल्ल्लाहू अलैहि वसल्लम की हिफ़ाज़त की सआदत. ये वाक़िया आपने काफ़ी दफ़ा पढ़ा होगा।ये वाक़िया मदीने की तारीख़ की तक़रीबन तमाम कुतुब में मौजूद है.इस का ज़िक्र मदीने की मशहूर और मुख़्तसर तारीख़ वफ़ा के मुसन्निफ़ अल्लामा नूर उद्दीन अबुलहसन समहोदी ने अपनी इस किताब में किया है और शेख़ मुहम्मद अबदुलहक़ मुहद्दिस देहलवी अलैहि रहिमा ने अपनी किताब तारीख़ मदीना में तीन बड़ी सा ज़िशों का ज़िक्र किया है।
जिसमें से ये वाक़िया सबसे मशहूर हैवाक़िया पेश-ए-ख़िदमत है।समहोदी के क़ौल के मुताबिक़ ईसाईयों ने ये साज़िश जब की उस वक़्त शाम के बादशाह का नाम सुलतान नूर उद्दीन ज़ंगी था। और उनके के मुशीर का नाम जमाल उद्दीन असफ़हानी था. एक रात नूर उद्दीन ज़ंगी ने रसूल सल्ल्लाहू अलैहि वसल्लम को ख़ाब में तीन बार देखा । हर बार रसूल सल्ल्लाहू अलैहि वसल्लम ने दो आदमीयों की तरफ़ इशारा करते हुए सुलतान से कहा मुझे इन दोनों की श’रारत से बचाओ.
एक रात, नमाज़-ए-तहज्जुद के बाद, सुलतान नूर उद्दीन ज़ंगी ने ख़ाब में देखा कि रसूल करीम सल्ल्लाहू अलैहि वसल्लम दो सुर्ख़ी माइल रंगत के आदमीयों की तरफ़ इशारा कर के सुलतान से कह रहे हैं कि मुझे उनके शर से बचाओ। सुलतान हड़बड़ा कर उठा, वुज़ू किया, नफ़ल अदा किए और फिर उस की आँख लग गई.
दुबारा वही ख्वाब देखा। उठा वुज़ू किया। नफ़ल पढ़े और सो गया.तीसरी बार वही ख़ाब देखा। अब उस की नींद उड़ गई। उसने रात को ही अपने मुशीर जमाल उद्दीन मूसली को बुला कर पूरा वाक़िया सुनायामुशीर ने कहा सुलतान ये ख़ाब तीन बार देखने के बाद आप यहां क्यों बैठे हैं? इस का अब किसी से ज़िक्र ना करें और फ़ौरन मदीने रवाना होजाएं।
अगले रोज़ सुलतान ने बीस मख़सूस अफ़राद और बहुत से तहाइफ़ के साथ मदीने के लिए कूच किया और सोलहवीं रोज़ शाम के वक़्त वहां पहुंच गया। सुलतान ने रोज़-ए-रसूल सल्ल्लाहू अलैहि वसल्लम पर हाज़िरी दी और मस्जिद-ए-नबवी में बैठ गया। ऐलान किया कि अहल मदीना मस्जिद नबवी में पहुंच जाएं, जहां सुलतान उनमें तहाइफ़ तक़सीम करेगा। लोग आते गए और सुलतान हर आने वाले को बारी बारी तोहफ़ा देता रहा।
इस दौरान वो हर शख़्स को ग़ौर से देखता रहा, लेकिन वो दो चेहरे नज़र ना आए जो उसे एक रात में तीन बार ख़ाब में दिखाए गए थे. सुलतान ने हाज़िरीन से पूछा ”क्या मदीने का हर शहरी मुझसे मिल चुका है? जवाब इस्बात में थासुलतान ने फिर पूछा ”क्या तुम्हें यक़ीन है कि हर शहरी मुझसे मिल चुका है? इस बार हाज़िरीन ने कहा ”सिवाए दो आदमीयों के । सुलतान ने पूछा वो कौन हैं? और अपना तोहफ़ा लेने क्यों नहीं आए?
बताया गया कि ये मराक़श के नमाज़ के पाबंद दो मुत्तक़ी बाशिंदे हैं, दिन रात रसूल करीम पर दुरूद सलाम भेजते हैं और हर हफ़्ते मस्जिद-ए-कुबा जाते हैं। फ़य्याज़ और मेहमान नवाज़ हैं। किसी का दिया नहीं लेते. सुलतान ने कहा सुब्हान-अल्लाह और हुक्म दिया कि इन दोनों को भी अपने तहाइफ़ वसूल करने के लिए फ़ौरन बुलाया जाये। जब उन्हें ये ख़ुसूसी पैग़ाम मिला तो उन्होंने कहा अल्हम्दुलिल्ला, हमारे पास अल्लाह का दिया सब कुछ है और हमें किसी तोहफ़े तहाइफ़ या ख़ैर ख़ैरात की हाजत नहीं।
जब ये जवाब सुलतान तक पहुंचाया गया तो उसने हुक्म दिया कि इन दोनों को फ़ौरन पेश किया जाये। हुक्म की फ़ौरी तामील हुई। एक झलक उनकी शनाख़्त के लिए काफ़ी थी ताहम सुलतान ने अपना ग़ुस्सा क़ाबू में रखा और पूछा तुम कौन हो? यहां क्यों आए हो? उन्होंने कहा,हम मराक़श के रहने वाले हैं। हज के लिए आए थे और अब रोज़-ए-रसूल के साय में ज़िंदगी गुज़ारना चाहते हैं।सुलतान ने सख़्ती से कहा ”क्या तुमने झूट बोलने की क़सम खा रखी है?
अब वो चुप रहे
सुलतान ने हाज़िरीन से पूछा ये कहाँ रह रहे हैं? बताया गया कि रोज़-ए-नबवी के बिलकुल नज़दीक एक मकान में (जो मस्जिद-ए-नबवी के जुनूब मग़रिब में दीवार के साथ था. सुलतान फ़ौरन उठा और उन्हें साथ लेकर इस मकान में दाख़िल हो गया। सुलतान मकान में घूमता फिरता रहा। अचानक नए और क़ीमती सामान से भरे हुए इस मकान में, इस की नज़र फ़र्श पर पड़ी हुई एक चटाई पर पड़ी। नज़र पढ़नी थी कि दोनों मराक़शी बाशिंदों की हवाईयां उड़ गईं। सुलतान ने चटाई उठाई। इस के नीचे एक ताज़ा ख़ुदी हुई सुरंग थी
सुलतान ने गरज कर कहा ”क्या अब भी सच्च ना बोलोगे
उनके पास सच्च के सिवा कोई चारा ना था। उन्होंने एतराफ़ किया कि वो ईसाई हैं और उनके हुक्मराँ ने उन्हें बहुत सा माल-ओ-ज़र और साज़-ओ-सामान देकर हाजियों के रूप में मराक़श से इस मंसूबे पर हिजाज़ भेजा था कि वो किसी ना किसी तरह रसूल करीम का जसद-ए-अक़्दस रोज़-ए-मुबारक से निकाल कर ले आएं।
इस नापाक मंसूबे की तकमील के लिए, उन्होंने हज का बहाना किया और इस के बाद रोज़-ए-रसूल से नज़दीक तरीन जो मकान किराए पर मिल सकता था, वो लेकर अपना मज़मूम काम शुरू कर दियाहर रात वो सुरंग खोदते, जिसका रुख रोज़-ए-मुबारक की तरफ़ था और हर सुबह ख़ुदी हुई मिट्टी चमड़े के थैलों में भर कर जन्नत अल बक़ीअ ले जाते और उसे क़ ब्रों पर बिखेर देते।
उन्होंने बताया कि उनकी ना पाक मुहिम बिलकुल आख़िरी मराहिल में थी कि एक रात मूसलाधार बारिश के साथ ऐसी गरज चमक हुई जैसे ज़लज़ ला आ गया हो और अब जब कि उनका काम पा य-ए-तकमील को पहुंचने वाला था तो सुलतान ना जाने कैसे मदीने पहुंच गए सुलतान उनकी गुफ़्तगु सुनते जाते और रोते जाते और साथ ही फ़रमाते जाते कि मेरा नसीब कि पूरी दुनिया में से इस ख़िदमत के लिए इस ग़ुलाम को चुना गया.सुलतान नूर उद्दीन ज़ंगी ने हुक्म दिया कि इन दोनों को क़’तल कर दिया जाये। रोज़-ए-मुबारक के गर्द एक ख़ंदक़ खोदी जाये और उसे पिघले हुए सीसे से पाट दिया जाये, ताकि आइन्दा कोई बद-बख़्त ऐसी मज़मूम हरकत के बारे में सोच भी ना सके.