भारत के हर शाकाहारी घर में घर कर चुका आलू, जिसे शाकाहारियों का मांस भी कहा जाता है.बिना आलू के शायद ही एक भारतीय शाकाहारी ज़ी सके पर आलू ! आज के दौर में जब खासकर उत्तर भारत में, ‘इतिहास की ओर चलाने का’ चलन जो उन्मादी हिंदुत्व संगठनों ने चला रखा है जिसे देख तंजौर के मंदिर के पास रखे एक शिलालेख में उत्कीर्ण एक दृश्य याद आता है जिसमे एक बिल्ली एक पैर पे पूजा कर रही है और बिल्ली की इस भक्ति भाव से ओत-प्रोत हो एक चूहा उसके पास आता है और बिल्ली वन्दना करने लग जाता है, समझने की बात इतनी है की बिल्ली अपने कर्म में हमेशा कामयाब होती है.
17वीं सदी में पुर्तगाली भारतीय उपमहाद्वीप में आलू ले कर आये, और आलू को यहाँ की धरती इतनी रास आई की व्रत के रस के साथ इसका संजोग तक हो गया.अटूट इतना की इसकी कीमत बढ़ जाये तो चुनाव में सीटें भी कम हो जाती है.दक्षिण भारत की अगर किसी एक चीज़ से उत्तर भारतीयों ने दिल्लगी की है तो वो है डोसा, पतला डोसा, आलू के मसाले से भरा, उतनी रजनीकांत या उनपे बने चुटकलों से भी नहीं की. युद्ध में हराने के बाद, कम्पनी राज ने अवध के नवाबों का पता बंगाल कर दिया, पर नवाब तो थे और वो नवाब क्या जिसकी जुबां चटोरी न हो. नवाबों के साथ अवध की बिरयानी भी बंगाल रवाना हो गयी पर नये पते पर जैसा की नई जगहों पर समस्याएं भी होती है,बंगाल का जायका मच्छी (मछली) की बिना अधुरा और मॉस बंगाल में मिले न कोई पर्याप्त मात्रा में, और नवाबों की जुबां बिना बिरयानी तड़पे जैसे बिन पानी की मछली तो समाधान निकला आलू. मॉस की कमी को पूरा करने के लिए आलू का इस्तेमाल हुआ और ऐसा उपजी बंगाल की बिरयानी. पर बिरयानी में आलू का साथ देता चावल की खेती सबसे पहले चीन में हुई फिर इसका प्रसार बढ़ा, पर जरूरी नहीं की ‘बहिष्कार चीनी सामान की नीति’ जुबां पर भी लागु हो.
वर्तमान के प्रचलित इतिहास जागरण कार्यक्रमों को देख,उनको एक सुझाव है हमारा,जो एक गाने के कुछ बोल हैं “पर्दे में रहने दो, पर्दा न उठाओ, पर्दा जो उठ गया तो भेद खुल जायेगा“. आलू का उदाहरण इसलिए की आलू भी हमारे इतिहास का भाग है, सिर्फ राजाओं के लड़ाइयाँ ही नहीं. क्या हम उसे विदेशी मान उसका बहिष्कार करेंगे, और क्या बहिष्कार करेंगे, आपके शरीर में यही आलू प्रोटीन-विटामिन बन टिका है, क्या यह जान आप अपने शरीर का त्याग करेंगे, और आलू तो सिर्फ एक ही उदाहरण है. हलुवा,शब्द और खाना दोनों अरबी से है, समोसा फारसी है, टमाटर जिसको फेंक कर कोई क्रोध प्रकट करता है तो कोई त्वचा पर सौन्दर्य की लिए प्रयोग करता है. इतिहास को तलवार और धर्म के तराज़ू में न तौलिये, सिर्फ़ इसलिए नहीं कि आपको उसकी समझ ही नहीं है अपितु आप उस लायक भी नहीं है.
ये जो जानबूझ कर काम किये जा रहे है ताकि समाज में खाई लाई जा सक, इसका नुक़सान उन्हीं को होगा क्यूंकि सूरज का नाम चाँद रख भी अगर उसे कोई छुएगा तब भी जलेगा. इतिहास न ही स्वर्णिम होता है न निम्न, न ही गौरवान्वित न ही शर्मिंदगी से भरा… वो सिर्फ तत्कालीन समय में घटित घटनाये हैं और ऐसे में अगर कोई भी सिर्फ सुनी-सुनाई बातों पे या अगर किसी प्रमाणित घटना पर भी सीना चौड़ा या हाय करता है तो वो वही चूहा है. अंत में, अगर औरंगज़ेब ने वास्तविकता में किसी घटना को अंजाम भी दिया हो तो उसका आज के परिवेश से बदला नहीं लिया जा सकता, और बदला लेना ही है तो औरंगज़ेब के पास जाइये.
(ये लेख वैभव मिश्रा ने लिखा है, वैभव लखनऊ विश्विद्यालय से अन्थ्रोपोलोजी की पढ़ाई कर रहे हैं)
फ़ीचर्ड इमेज: डच पेंटर विन्सेंट वन गोघ की आयल पेंटिंग “दा पोटैटो ईटर्स” (1885)
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