भारत में कैसे आयी मूँगफली?, पढ़िए वैभव मिश्रा का लेख..

लकड़ी की आग पे रखे लोहे की कढ़ाई पे सिकते, गरीबों के बादाम खाने का सपना पूरा करने वाली, “गरीबों का बादाम” कही जाने वाली मूंगफली सर्द शामों में सड़क किनारे लगे ठेलों पे आसानी से देखने को मिल जाती है, दोस्तों या परिवार की महफ़िलों की वजह बन जाने वाली मूंगफली, हरी चटनी और काले नमक का साथ लिए हिंद उपमहाद्वीप के लोगों की जुबां पर अनेक तरीकों से छाया हुए है- व्रत में, चाय के साथ या फिर शराबियों के चखने के तौर पर। हिंदी व्याकरण में स्त्रीलिंग माने जाने वाली मूंगफली, पितृ-सतात्मक समाज में स्त्री की दुश्वारियों का सटीक बोध कराती कि कैसे समाज स्त्री को फोड़ कर, छिल कर उसे खा जाता है। पर हैरत की आपके शर्ट-जींस की तरह बाहरी है।

भारतीय उपमहद्वीप और आज के भारत में मूंगफली 16वीं या 17वीं सदी में पहुंची। अमेरिकी महाद्वीप की खोज के बाद, दक्षिणी अमेरिका के बड़े हिस्से पर पुर्तगालियों बाद में स्पेनियों का प्रभुत्व व शाशन रहा और इन नई जमीनों का इस्तेमाल उन्होंने अपना व्यापार बढ़ाने के लिए किया और उपलब्ध-अनुपलब्ध चीजों का व्यापार किया और इस प्रकार पेरू, ब्राज़ील, वेनेजुएला में पाई जाने वाली मूंगफली पहले मेक्सिको पहुंची फिर पुर्तगालियों द्वारा यूरोप और पश्चिमी अफ्रीका पहुंची, स्पेनियों द्वारा ये पश्चिमी पैसिफिक के द्वीपों और पूर्वी एशियाई के देशों में पहुंची।

भारत में इसका आगमन दो मार्गों से माना जाता है- एक चीन से और दूसरा अफ्रीका से या पुर्तगालियों द्वारा, इन दोनों किस्मों की पहचान आसान है जिससे राष्ट्रवादियों चीन से आई मूंगफलियों का बहिष्कार कर सकेंगे और आप को सहायता मिलेगी ठोस राष्ट्रवादी बनने में। चीन मार्ग से आई मूंगफलियों का आकार प्रायः छोटा होता है पश्चिमी मार्ग से आई मूंगफलियों की तुलना में। एक हास्यास्पद इतिहास मूंगफली का यह भी कि 20वीं के शुरुवात तक संयुक्त राज्य अमेरिका में इसके प्रयोग मुख्यत: जानवरों की चारे के तौर पर किया जाता रहा उसके बाद वहां के मूंगफली आयोग ने तीसरे दशक में इसके घरेलू इस्तेमाल को बढ़ावा देने के लिए कई सफल मुहिमें करी।
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वैभव मिश्रा Vaibhav Mishra

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