छात्र राजनीति के दौर से लेकर सामाजिक प्रदर्शनों तक जो नारे अब तक लगे हैं वो लगभग एक जैसे रहे हैं. “इंक़िलाब ज़िन्दाबाद”, “बोल के लब आज़ाद हैं तेरे”, “आवाज़ दो, हम एक हैं”,”लड़ेंगे, जीतेंगे” जैसे नारों से विश्विद्यालय के कैम्पस गूंजते रहते थे. किसी भी मुद्दे पर कोई प्रदर्शन हो तो अक्सर यही नारे सुनने को मिलते थे. फ़ैज़, मजाज़, मंटो, साहिर के क़िस्से भी इन प्रदर्शनों में सुनने को मिलते थे लेकिन नागरिकता संशोधन विधेयक के ख़िलाफ़ जब प्रोटेस्ट शुरू हुआ तो ये सब नारे तो लगे लेकिन एक नारा बहुत अहम् तौर पर चला है और वो है “किसी के बाप का हिन्दोस्तान थोड़ी है”.
असल में ये राहत इंदौरी के एक शेर का मिसरा है. शेर है,”सभी का ख़ून है शामिल यहाँ की मिट्टी में, किसी के बाप का हिन्दोस्तान थोड़ी है”. ये शेर दिल्ली, मुंबई, लखनऊ, हैदराबाद, और दूसरे शहरों में प्रदर्शनकारियों ने नारे के बतौर इस्तेमाल किया. ऐसा नहीं है कि फ़ैज़, मजाज़, मंटो, साहिर, कैफ़ी को लोग भूल गए. कोई किसी को नहीं भूला बस नयी नस्ल में जोश भरने के लिए कुछ नए शेर भी सामने आ गए हैं.
जानकार मानते हैं कि नागरिकता संशोधन विधेयक, और नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटिज़न के ख़ि’लाफ़ विरो’ध में “किसी के बाप का हिन्दोस्तान थोड़ी है” नारा फ़िट बैठता है. कुछ साल पहले तक ये शेर मुशाइरों में ख़ूब तारीफ़ बटोरता था. राहत इन्दौरी जिस किसी भी मुशाइरे में जाते वो इस शेर को ज़रूर सुनाते लेकिन CAA और NRC के ख़िलाफ़ चल रहे आन्दोलन ने इस शेर को नया आयाम दे दिया है.